विश्वपिता विधाता ने मनुष्य के जन्म के समय में ही देह के साथ एक ऐसा
आश्चर्यजनक कौशलपूर्ण अपूर्व उपाय रच दिया है जिसे जान लेने पर सांसारिक, वैषयिक किसी भी कार्य
में असफलता का दु:ख नहीं हो सकता। हम इस अपूर्व कौशल को नहीं जानते, इसी कारण हमारा कार्य
असफल हो जाता है, आशा भंग हो जाती है, हमें मनस्ताप और रोग
भोगना पड़ता है। यह विषय जिस शास्त्र में है, उसे स्वरोदय शास्त्र कहते हैं।
कायानगरमध्ये तु मारुत: क्षितिपालक:
देहरूपी नगर में वायु राजा के समान है। प्राणवायु नि:श्वास और
प्रश्वास इन दो नामों से पुकारा जाता है। वायु ग्रहण करने का नाम नि:श्वास और वायु
के परित्याग करने का नाम प्रश्वास है। जीव के जन्म से मृत्यु के अंतिम क्षण तक
निरंतर श्वास-प्रश्वास की क्रिया होती रहती है और यह नि:श्वास नासिका के दोनों
छेदों से एक ही समय एकसाथ समान रूप से नहीं चला करता, कभी बाएं और कभी
दाहिने पुट से चलता है। कभी-कभी एकाध घड़ी तक एक ही समय दोनों नाकों से समान भाव
से श्वास प्रवाहित होता है।
बाएं नासापुट के श्वास को इडा में चलना, दाहिनी नासिका के
श्वास को पिंगला में चलना और दोनों पुटों से एक समान चलने पर उसे सुषुम्ना में
चलना कहते हैं। जिस नासिका से सरलतापूर्वक श्वास बाहर निकलता हो, उस समय उसी नासिका का
श्वास कहना चाहिए।
प्रतिदिन प्रात:काल सूर्योदय के समय से ढाई-ढाई घड़ी के हिसाब से
एक-एक नासिका से श्वास चलता है। इस प्रकार रात-दिन में 12 बार बाईं और 12 बार दाहिनी नासिका से
क्रमानुसार श्वास चलता है। किस दिन किस नासिका से पहले श्वासक्रिया होती है, इसका एक निर्दिष्ट
नियम है, यथा-
आदौ चन्द्र: सिते पक्षे भास्करस्तु सितेतरे।
प्रतिपत्तो दिनान्याहुस्त्रीणि त्रीणि क्रमोदये।।
(पवनविजवस्वरोदय)
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से 3-3 दिन की बारी से चन्द्र
अर्थात बाईं नासिका से तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से 3-3 दिन भी बारी से सूर्य
नाड़ी अर्थात दाहिनी नासिका से पहले श्वास प्रवाहित होता है। अर्थात शुक्ल पक्ष की
प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा- इन 9 दिनों में प्रात:काल
सूर्योदय के पहले बाईं नासिका से तथा चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी- इन 6 दिनों को प्रात:काल
पहले दाहिनी नासिका से श्वास चलना प्रारंभ होता है और वह ढाई घड़ी तक रहता है। उसके
बाद दूसरी नासिका से श्वास जारी होता है।
वहेत्तावद् घटीमध्ये पश्चतत्त्वानि निर्दिशेत्।
(स्वरशास्त्र)
प्रतिदिन रात-दिन की 60 घड़ियों में ढाई-ढाई घड़ी
के हिसाब से एक-एक नासिका से निर्दिष्ट क्रम से श्वास चलने के समय क्रमश:
पंचतत्वों का उदय होता है। इस श्वास-प्रश्वास की गति को समझकर कार्य करने पर शरीर
स्वस्थ रहता है और मनुष्य दीर्घजीवी होता है, फलस्वरूप सांसारिक, वैषयिक सब कार्यों
में सफलता मिलने के कारण सुखपूर्वक संसार यात्रा पूरी होती है।
वाम नासिका का श्वासफल :
जिस समय इडा नाड़ी से अर्थात बाईं नासिका से श्वास चलता हो, उस समय स्थिर कर्मों
को करना चाहिए, जैसे अलंकार धारण, दूर की यात्रा, आश्रम में प्रवेश, राज मंदिर तथा महल
बनाना तथा द्रव्यादि को ग्रहण करना। तालाब, कुआं आदि जलाशय तथा देवस्तंभ
आदि की प्रतिष्ठा करना। इसी समय यात्रा, दान, विवाह, नया कपड़ा पहनना, शांतिकर्म, पौष्टिक कर्म, दिव्यौषध सेवन, रसायन कार्य, प्रभु दर्शन, मित्रता स्थापन एवं
बाहर जाना आदि शुभ कार्य करने चाहिए। बाईं नाक से श्वास चलने के समय शुभ कार्य
करने पर उन सब कार्यों में सिद्धि मिलती है, परंतु वायु, अग्नि और आकाश तत्व
उदय के समय उक्त कार्य नहीं करने चाहिए।
दक्षिण नासिका का श्वासफल :
जिस समय पिंगला नाड़ी अर्थात दाहिनी नाक से श्वास चलता हो, उस समय कठिन कर्म
करने चाहिए, जैसे कठिन क्रूर विद्या का
अध्ययन और अध्यापन, स्त्री संसर्ग, नौकादि आरोहण, तान्त्रिकमतानुसार
वीरमंत्रादिसम्मत उपासना, वैरी को दंड, शास्त्राभ्यास, गमन, पशु विक्रय, ईंट, पत्थर, काठ तथा रत्नादि का
घिसना और छीलना, संगीत अभ्यास, यंत्र-तंत्र बनाना, किले और पहाड़ पर
चढ़ना, हाथी, घोड़ा तथा रथ आदि की
सवारी सीखना, व्यायाम, षट्कर्मसाधन, यक्षिणी, बेताल तथा भूतादिसाधन, औषधसेवन, लिपिलेखन, दान, क्रय-विक्रय, युद्ध, भोग, राजदर्शन, स्नानाहार आदि।
सुषुम्ना का श्वासफल :
दोनों नाकों से श्वास चलने के समय किसी प्रकार का शुभ या अशुभ कार्य
नहीं करना चाहिए। उस समय कोई भी काम करने से वह निष्फल ही होगा। उस समय योगाभ्यास
और ध्यान-धारणादि के द्वारा केवल भगवान को स्मरण करना उचित है। सुषुम्ना नाड़ी से
श्वास चलने के समय किसी को भी शाप या वर प्रदान करने पर वह सफल होता है।
बुद्धिमान पाठक इस संक्षिप्त अंश को पढ़कर यदि ठीक-ठीक कार्य करेंगे
तो निश्चय ही सफल मनोरथ होंगे।
- कल्याण के दसवें वर्ष का
विशेषांक योगांक से साभार
(लेखक- परिव्राजकाचार्य
परमहंस श्रीमत्स्वामी निगमानन्दजी सरस्वती)
सोमवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार को अगर वाम स्वर यानी बाई नासिका से स्वर चल
रहा हो तो यह श्रेष्ठ होता है। इसी प्रकार अगर मंगलवार, शनिवार और रविवार को दक्षिण स्वर यानी दाईं नासिका से स्वर चल रहा
हो तो इसे श्रेष्ठ बताया गया है।
अगर स्वर इसके प्रतिकूल हो
तो
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रविवार को शरीर में वेदना महसूस होगी
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सोमवार को कलह का वातावरण मिलेगा
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मंगलवार को मृत्यु और दूर देशों की यात्रा होगी
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बुधवार को राज्य से आपत्ति होगी
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गुरु और शुक्रवार को प्रत्येक कार्य की असिद्धी होगी
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शनिवार को बल और खेती का नाश होगा
स्वर को तत्वों के आधार पर बांटा भी गया है। हर स्वर का एक तत्व
होता है।
यह इडा या पिंगला (बाई अथवा
दाई नासिका) से निकलने वाले वायु के प्रभाव से नापा जाता है।
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श्वास का दैर्ध्य 16 अंगुल हो तो पृथ्वी तत्व
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श्वास का दैर्ध्य 12 अंगुल हो तो जल तत्व
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श्वास का दैर्ध्य 8 अंगुल हो तो अग्नि तत्व
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श्वास का दैर्ध्य 6 अंगुल हो तो वायु तत्व
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श्वास का दैर्ध्य 3 अंगुल हो तो आकाश तत्व
होता है।
यह तत्व हमेशा एक जैसा नहीं रहता। तत्व के बदलने के साथ फलादेश भी
बदल जाते हैं।
आगे हम देखेंगे तत्व के अनुसार
क्या क्या फल सामने आते हैं।
शुक्ल पक्ष में नाडि़यों
में तत्व का संचार देखें तो आमतौर पर वाम स्वर शुभ होते हैं और दक्षिण स्वर
अशुभ।
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पृथ्वी तत्व चले तो महल में प्रवेश
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अग्नि तत्व चले तो जल से भय, घाव, घर का दाह
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वायु तत्व चले तो चोर भय, पलायन, हाथी घोड़े की सवारी
मिलती है।
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आकाश तत्व चले तो मंत्र, तंत्र, यंत्र का उपदेश देव
प्रतिष्ठा, व्याधि की उत्पत्ति, शरीर में निरंतर
पीड़ा
अगर किसी भी समय में दोनों
नाडि़यां एक साथ चलें तो योग में इसे उत्तम माना जाता है, लेकिन फल प्राप्ति के
मामले में देखें तो फलों का समान फल
कहा गया है। इसे बहुत उत्तम नहीं माना जाता है।
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